पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास -
पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की दो प्रमुख विशेषताएं हैं।
संगठन तथा अनुकूलन
संगठन से तात्पर्य प्रत्यक्षिकृत तथा बौद्धिक सूचनाओं को सार्थक पैटर्न जिन्हें बौद्धिक संरचनाएं कहते हैं मे व्यवस्थित करने से हैं ।प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वयं की बौद्धिक संरचनाओं का निर्माण करता है ।जो वातावरण के साथ समायोजन करने में उसकी ज्ञान तथा कार्यों को संगठित करती हैं। व्यक्ति मिलने वाली नवीन सूचनाओं को इन पूर्व निर्मित बौद्धिक संरचनाएं में संगठित करने का प्रयास करता है। परंतु कभी-कभी वह इस कार में सफल नहीं हो पाता है तब वह अनुकूलन करता है। प्याजे प्रथम मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने व्यक्ति को जन्म से क्रियाशील तत्व सूचना प्रक्रमणित प्राणी स्वीकार किया है । उनके अनुसार व्यक्त एकत्रित बौद्धिक सूचनाओं का वर्गीकरण करता रहता है जिससे वह अपने बाह्य जगत की परिस्थितियों के अनुरूप सहज और स्वाभाविक ढंग से उचित व्यवहार कर सकें अनुकूलन व प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने पूर्व ज्ञान तथा नवीन अनुभव के मध्य संतुलन स्थापित करता है अनुकूलन के अंतर्गत दो प्रक्रिया है।
आत्मसातकरण तथा समाविष्टकरण
आत्मसात करण से तात्पर्य नवीन अनुभवों को पूर्वर्ती विद्यमान बौद्धिक संरचनाओं में व्यवस्थित करने से है जबकि समाविष्टीकरण से तात्पर्य नवीन अनुभव की दृष्टि से पूर्ववर्ती बौद्धिक संरचनाओं में सुधार करने विस्तार करने या परिवर्तन करने से है। यह विद्वन बौद्धिक संरचनाओं को परिवर्तित करने की प्रक्रिया है जिससे नवीन अनुभव अथवा ज्ञान को उचित ढंग से व्यवस्थित किया जा सके
पियाजे ने बौद्धिक विकास की चार अवस्थाएं बताई है जो निम्नलिखित हैं-
संवेदनात्मक अवस्था या गामक अवस्था
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था
मूर्त संक्रिया अवस्था
औपचारिक संक्रिया अवस्था
संवेदनात्मक अवस्था या गामक अवस्था
ज्ञानात्मक विकास की प्रथम अवस्था को पिया जाने संवेदनात्मक या गामक अवस्था के नाम से संबोधित किया है यह अवस्था जन्म के उपरांत प्रथम 2 वर्षों तक चलती है इस अवस्था में बालक देखने पहुंचने पकड़ने चूसने आज की सतह साथ क्रिया से व्यवस्थित प्रयासरत क्रियाओं की ओर अग्रसारित होता है।
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था
संज्ञानात्मक विकास की पूर्व संक्रियात्मक अवस्था लगभग 2 वर्ष की अवस्था से प्रारंभ होकर 7 वर्ष की अवस्था तक चलती है इस अवस्था में संकेत आत्मक कार्यों का प्रादुर्भाव तथा भाषा का प्रयोग प्रारंभ होता है इस अवस्था को दो भागों में बांटा जा सकता है पूर्व प्रत्यायतम्क काल जो 2 से 4 वर्ष तक होता है । तथा अंतः प्रज्ञा काल जो 4 वर्ष से 7 वर्ष तक होता है पूर्व प्रत्ययात्मक अवस्था वस्तुतः परिवर्तन की अवस्था है जिससे खोज की अवस्था भी कहा जा सकता है।
मूर्त संक्रिया अवस्था
मूर्त संक्रिया अवस्था लगभग 7 से 12 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में पूर्व संक्रियात्मक अवस्था का तार्किक चिंतन संक्रियात्मक विचारों का स्थान लेने लगता है। बालक छोटे-छोटे विलोमीय पदों की श्रृंखला के द्वारा विचार करने लगता है। बालक में वस्तुओं के संबंध में विभिन्न प्रकार की तार्किक संक्रियाएं करने लगता है वस्तुओं के वाह्य व सतही अंतर उन्हें अब मुर्ख नहीं बना पाते हैं। अब वे माप सकते हैं, तौल,सकते हैं, तथा गिन सकते हैं । जब सूचनाएं मूर्त होती है तब वह ठीक ढंग से उनकी तुलना भी कर सकते हैं।
औपचारिक संक्रिया अवस्था
संज्ञानात्मक विकास की अंतिम अवस्था औपचारिक संक्रिया औपचारिक संक्रिया अवस्था है। जो लगभग 11 से 15 वर्ष की आयु तक चलती है इस अवस्था के दौरान बालक अमूर्त बातों के संबंध में तार्किक चिंतन करने की योग्यता विकसित करता है। मूर्त वस्तुओं तथा सामग्री के स्थान पर शब्द तथा संकेतिक अभिव्यक्ति का प्रयोग तार्किक चिंतन में किया जाता है। समस्या समाधान व्यवहार अधिक व्यवस्थित हो जाता है। बालक निष्कर्ष निकालने लगता है व्याख्या करने लगता है तथा पर कल्पनाएं बनाने लगता है औपचारिक संक्रियात्मक विचार बालकों को वास्तविकता से बाहर जाने तथा संभावनाओं पर विचार करने योग्य बनाते हैं बालकों का कार्य त्रुटि एवं प्रयास पर ही आधारित नहीं होता है वरन् वे भविष्य के संबंध में अपने विचारों को भी प्रक्षेपित करते हैं तथा भावी संभावनाओं के संबंध में तर्क करते हैं
पिया जी के द्वारा बताई गई उपरोक्त वर्णित चारों अवस्थाएं क्रम से जटिल होती जाती हैं बालकों के द्वारा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने की गति उनकी शारीरिक परिपक्वता तथा वातावरण अनुभवों पर आधारित होती है।
पिया जी के द्वारा बताई गई उपरोक्त वर्णित चारों अवस्थाएं क्रम से जटिल होती जाती हैं बालकों के द्वारा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने की गति उनकी शारीरिक परिपक्वता तथा वातावरण अनुभवों पर आधारित होती है।
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