यह संस्कार प्रत्येक वर्ग के छात्र के लिए अनिवार्य था परंतु शूद्रों का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। यह संस्कार उस समय होता था, जब छात्र गुरु के संरक्षण में वैदिक शिक्षा आरंभ करता था ।'उपनयन' का शाब्दिक अर्थ है "पास ले जाना"। बालक गुरु से प्रार्थना करता है," मैं ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने आपके पास आया हूं। मुझे ब्रह्मचारी बनने दो ," गुरुजी पूछते हैं तुम किसके ब्रह्मचारी हो ?बालक उत्तर देता है आपका ।अभिभावक छात्र को गुरु को समर्पित कर देता था ।उपनयन संस्कार से पहले छात्र शूद्र कहलाता था तथा इस संस्कार के बाद दिव्ज। गुरु छात्र को पहले गायत्री मंत्र का उपदेश देता था और उसके बाद उसे शिक्षा का ज्ञान देना प्रारंभ करता था। उपनयन संस्कार की आयु ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य बच्चों के लिए 8 वर्ष 11 वर्ष तथा 12 वर्ष थी ।अध्ययन काल की साधारण अवधि 12 वर्ष थी। 24 से 25 वर्ष की आयु तक अध्ययन पूरा करके ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने योग्य हो जाता था।
बिस्मिल्लाह रस्म - मुसलमानों की शिक्षा बिस्मिल्लाह रस्म के बाद प्रारंभ होती थी जब बालक 4 वर्ष 4 माह 4 दिन की आयु का होता था तब उसे किसी मुल्ला अथवा मौलवी के सामने ले जाया जाता था बालक संबंधियों के सामने कुरान की कुछ आए तो का पाठ करके अथवा बिस्मिल्लाह का उच्चारण कर अपने शिक्षा प्रारंभ करता था धनी तथा संपन्न व्यक्ति मौलवी साहब को अपने घर पर ही बुला कर बालकों की बिस्मिल्लाह रस्म अदा करा देते थे।
बिस्मिल्लाह रस्म - मुसलमानों की शिक्षा बिस्मिल्लाह रस्म के बाद प्रारंभ होती थी जब बालक 4 वर्ष 4 माह 4 दिन की आयु का होता था तब उसे किसी मुल्ला अथवा मौलवी के सामने ले जाया जाता था बालक संबंधियों के सामने कुरान की कुछ आए तो का पाठ करके अथवा बिस्मिल्लाह का उच्चारण कर अपने शिक्षा प्रारंभ करता था धनी तथा संपन्न व्यक्ति मौलवी साहब को अपने घर पर ही बुला कर बालकों की बिस्मिल्लाह रस्म अदा करा देते थे।
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